कविता :- “खादी”

खुरदुरे,खूनी संघर्ष के रास्ते जिसको भाते हैं!
स्वदेशी खादी की अहमियत भी वे ही गुनगुनाते हैं!!
देश प्रेम की खाद जो डाले तो फले फूले है खादी!
न होती पूरी खादी बगैर,अपने देश की आजा़दी!!
समृद्धि का ख़जाना है ये,सिंधु सभ्यता में जन्मी!
फांसी के फंदे देखे हैं और देखी दमनकारी मनमर्जी!!
कितनों को खोया खादी ने और कभी कितना पाया!
कतरा-कतरा खून के आंसू पीकर देश स्वतंत्र हो पाया!! गांव का कपास हो और, गांव का ही हो धागा!
गांव की खुशबू हो और हो गांव का ही चरखा!!
स्वाभिमान का ताना लेकर,आत्म निर्भरता का बाना!
गले लगें जब प्रेम पूर्वक बन जाती खादी आशियाना!!
तकली,चरखे में नाचती,हाथ हथकरघे में इतराती!
सफ़ेद,उज्जवल,सहज,सरल,समन्वय की ये चादर बुनती!!
गौरवान्वित होते पहन इसे,है संस्कारों की अजब थाती!
हीन भाव में फंसे फिरंगी,आई जब गांधी खादी!!
खादी के रेशे-रेशे में,कितने भावों का खून छिपा!
मान-अपमान,दर्द-आंसू,अपनेपन का प्रेम छिपा!!
जागो खादी में,सोवो खादी में,पहन कर दिखलाओ खादी!
आने वाली नस्लों की भी,बनती है अब जिम्मेदारी!!

—-डॉ०रश्मि चौधरी—-
व्याख्याता–के.आर.जी. कॉलेज ग्वालियर, मध्य प्रदेश,भारत।

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Post Author: Javed Khan

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